ना हिस्से में मुसाफिर के कोई दीवार ओ दर आया,
मुकद्दर हिज्र लेकर जब मुखालिफ में उतर आया.
चरागों की मुझे यूँ ही नहीं कारीगरी आई,
जलाया आशियाँ अपना तो हाथों में हुनर आया.
तेरी इस बेरुखी से बस मेरा दिल ही नहीं टूटा,
तेरी इस बेवफाई से कलेजे तक असर आया.
पिला दे तल्खियाँ सारे ज़माने की मुझे साक़ी,
मेरा फिर ज़िंदगी जीने का ये जज़्बा उभर आया.
बना कर अम्न का कासिद जिसे आदम की बस्ती में,
परिंदा मैंने जो भेजा था खूँ में तर ब तर आया.
मुकद्दर हम अमीन अपना किसी दिन आजमाएंगे,
दरख्तों में हमारे सब्र के कितना समर आया.